क्रिया और भावना

नीचे लिखे मन्त्रों के पाठ के साथ अन्नप्राशन के लिए रखे गये पात्र में एक- एक करके भावनापूर्वक सभी वस्तुएँ डाली- मिलाई जाएँ ।। पात्र में खीर डालें ।। मात्रा इतनी लें कि ५ आहुतियाँ देने के बाद भी शिशु को चटाने के लिए कुछ बची रहे ।। भावना करें कि यह अन्न दिव्य संस्कारों को ग्रहण करके बालक में उन्हें स्थापित करने जा रहा है ।।
ॐ पयः पृथिव्यां पयऽओषधीषु, पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः ।। पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम् ॥- यजु० १८.३६

पात्र की खीर के साथ थोड़ा शहद मिलाए ।। भावना करें कि यह मधु उसे सुस्वादु बनाने के साथ- साथ उसमें मधुरता के संस्कार उत्पन्न कर रहा है ।। इससे शिशु के आचरण, वाणी- व्यवहार सभी में मधुरता बढ़ेगी ।।
ॐ मधुवाता ऋतायते, मधुक्षरन्ति सिन्धवः ।। मार्ध्वीनः सन्तवोषधीः ।। ॐ मधु नक्तमुतोषसो, मधुमत्पार्थिव  रजः ।। मधुद्यौरस्तु नः पिता ।। ॐ मधुमान्नो वनस्पतिः मधुमाँ२ऽअस्तु सूर्यः ।। माध्वीर्गावो भवन्तु नः ।। -१३.२७- २९

पात्र में थोड़ा घी डालें, मन्त्र के साथ मिलाए ।। यह घी रूखापन मिटाकर स्निग्धता देगा ।। यह पदार्थ बालक के अन्दर शुष्कता का निवारण करके उसके जीवन में स्नेह, स्निग्धता, सरसता का संचार करेगा ।।
ॐ घृतं घृतपावानः, पिबत वसां वसापावानः ।। पिबतान्तरिक्षस्य हविरसि स्वाहा ।। दिशः प्रदिशऽआदिशो विदिशऽ, उद्दिशो दिग्भ्यः स्वाहा ॥ -६.११

पात्र में तुलसीदल के टुकडे़ मन्त्र के साथ डालें ।। यह औषधि शारीरिक ही नहीं, आधिदैविक, आध्यात्मिक रोगों का शमन करने में भी सक्षम है ।। यह अपनी तरह ईश्वर को समर्पित होने के संस्कार बालक को प्रदान करेगी ।।
ॐ या औषधीः पूर्वा जाता, देवेभ्यस्त्रियुगं पुरा ।। मनै नु बभ्रूणामह , शतं धामानि सप्त च ॥ -- १२.७५

गंगाजल की कुछ बूँदें पात्र में डालकर मिलाए ।। पतित पावनी गङ्गा खाद्य की पापवृत्तियाँ का हनन करके उसमें पुण्य सम्वर्द्धन के संस्कार पैदा कर रही हैं ।। ऐसी भावना के साथ उसे चम्मच से मिलाकर एक दिल कर दें ।। जैसे यह सब भिन्न- भिन्न वस्तुएँ एक हो गयीं, उसी प्रकार भिन्न- भिन्न श्रेष्ठ संस्कार बालक को एक समग्र श्रेष्ठ व्यक्तित्व प्रदान करें ।।
ॐ पंच नद्यः सरस्वतीम्, अपि यान्ति सस्रोतसः ।। सरस्वती तु पंचधा, सो देशेऽभवत्सरित् ॥- ३४.११

सभी वस्तुएँ मिलाकर वह मिश्रण पूजा वेदी के सामने संस्कारित होने के लिए रख दिया जाए ।। इसके बाद अग्नि स्थापन से लेकर गायत्री मन्त्र की आहुतियाँ पूरी करने तक का क्रम चलाया जाए ।।
विशेष आहुति

गायत्री मन्त्र की आहुतियाँ पूरी हो जाने पर पहले तैयार की गयी खीर से ५ आहुतियाँ नीचे लिखे मन्त्र के साथ दी जाएँ ।। भावना की जाए कि वह खीर इस प्रकार यज्ञ भगवान् का प्रसाद बन रही है ।।
ॐ दैवीं वाचमजनयन्त देवाः, तां विश्वरूप पशवो वदन्ति ।। सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना, धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु स्वाहा ।। इदं वाचे इदं न मम् ।। -ऋ० ८.१००.११
अन्नप्राशन

आहुतियाँ पूरी होने पर शेष खीर से बच्चे को अन्नप्राशन कराया जाए ।।
शिक्षण और प्रेरणा- 'जैसा अन्न- वैसा मन' की उक्ति सर्वविदित है ।। 'आहार शुद्ध सत्त्वशुद्धिः' का शास्त्र वचन भी विज्ञजन जानते हैं ।। इसीलिए अन्न को संस्कारित करके देना आवश्यक है ।। अन्न के रूप, रङ्ग, उसका स्वाद और गुण, धर्म भिन्न- भिन्न होते हैं ।। यह सब जानते हैं ।। यज्ञीय भावना द्वारा उसके संस्कारों का शोधन नवीनीकरण सम्भव है, इसीलिए अन्नप्राशन यज्ञावशिष्ट अन्न से कराया जाता है ।। यह एक संकेत मात्र है ।। यह क्रम सहज जीवन में भी रखा जाना चाहिए ।। बलिवैश्व एवं भोग लगाकर भोजन करने की परम्परा इसीलिए बनाई गयी थी ।।
गीता में कहा गया है कि 'यज्ञ से बचा हुआ अन्न खाने वाला सनातन ब्रह्म की प्राप्ति करता है ।। ऐसा न करने वालों को तो इस जीवन में भी सद्गति नहीं मिल पाती, आगे की तो क्या कहें' इस उक्ति का मर्म है-

अन्न वही लें, जो श्रेष्ठ संस्कारयुक्त है ।। बालकों के लिए सुस्वादु एवं स्वास्थ्यवर्धक आहार की तरह ही सुसंस्कारवान् अन्न जुटाने का प्रयत्न करना चाहिए ।। यज्ञ से बचा हुआ अन्न ही खाया जाए ।। इस तथ्य को बालक के मुख में सर्वप्रथम अन्नग्रास देते हुए समझाया जाता है ।। अपनी कमाई में से प्रथम सामाजिक उत्कर्ष की आवश्यकता पूरी की जानी चाहिए ।।
सर्वप्रथम अपनी कमाई का उपयोग अपने से भी अधिक पिछड़े हुए दुःखी, दिग्भ्रान्त लोगों को प्रकाश पहुँचाने के लिए होना चाहिए ।। फालतू पैसा या समय बचे, तब कुछ शुभ कार्य के लिए दिया जा सकता है, ऐसा सोचना धर्म के विरुद्ध है ।। मानवता का अर्थ यह है कि प्राथमिकता लोकमंगल को मिलनी चाहिए ।। दान करना किसी पर अहसान करना नहीं है, वरन् धर्म की- 'एक्साइज ड्यूटी' है ।। उत्पादन कर चुकाये बिना जिस तरह माल फैक्टरी से बाहर नहीं निकल सकता, उसी तरह लोकमंगल के लिए अपना आवश्यक योगदान दिये बिना शरीर, मन और धन अशुद्ध एवं अनुपयुक्त ही बने रहते हैं ।। इस प्रकार का अनुपयुक्त उपयोग अवांछनीय एवं धर्म विरुद्ध ही ठहराया गया है ।। कानून में इसके लिए दण्ड भले ही न हो, पर ईश्वरीय व्यवस्था में वह दण्डनीय है ।।
खीर खिलाने में इस तथ्य की ओर प्रत्येक अभिभावक का ध्यान आकर्षित किया जाता है कि वे अधिक मात्रा व अनुपयुक्त भोजन के खतरे को समझें और बच्चे को कुछ भी खिलाते समय इस सम्बन्ध में पूरी- पूरी सतर्कता बरतें ।। भोजन देने, कराने का उत्तरदायित्व कुछ ही व्यक्तियों पर रहना चाहिए ।। हर कोई जो चीज जब चाहे मुँह में न ठूँस दें, इसकी रोकथाम करना बालक की जीवन- रक्षा की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है ।। इसके लिए सारे घर का वातावरण ही बदलना पड़ेगा ।। मिर्च- मसाले खाकर, चाय-काफी पीकर बच्चे अपनी आँतों को तथा रक्त को खराब न करें ।। यदि यह अभीष्ट हो, तो बच्चे के आहार में से नहीं, सारे घर के आहार में से इस प्रकार की अनुपयुक्त वस्तुओं को हटाना पड़ेगा ।। अन्यथा आगे- पीछे देखा- देखी उन सब चीजों को बच्चे सीख ही जायेंगे, घर में जिस प्रकार का वातावरण बना हुआ है, दूसरे लोग जिन आदतों से ग्रसित हैं, उनसे बालकों को बचाया नहीं जा सकता ।।
क्रिया और भावना

खीर का थोड़ा- सा अंश चम्मच से मन्त्र के साथ बालक को चटा दिया जाए ।। भावना की जाए कि वह यज्ञावशिष्ट खीर अमृतोपम गुण युक्त है और बालक के शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक सन्तुलन, वैचारिक उत्कृष्टता तथा चारित्रिक प्रामाणिकता का पथ प्रशस्त करेगी ।।
ॐ अन्नपतेऽन्नस्य नो, देह्यनमीवस्य शुष्मिणः ।। प्रदातारं तारिषऽऊज, नो धेहि द्विपद चतुष्पदे ।। -- ११.८३
इसके बाद स्विष्टकृत् होम से लेकर विसर्जन तक के कर्म पूरे किये जाएँ ।। विसर्जन के पूर्व बालक को सभी लोग आशीर्वाद दें ।

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